शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

असाधारण नायक ओमपुरी

ओमपुरी की बहुचर्चित किताब को हिन्द पॉकेट बुक्स ने हिन्दी में छापकर जारी किया है। यह वही किताब है जिसका मूल संस्करण अंग्रेजी में है और जिसे उनकी पत्नी नंदिता पुरी ने लिखा है। इस पुस्तक का मूल संस्करण जब जारी होने को था तब उसके कुछ समय पहले कुछ अनपेक्षित बातों के जिक्र से ओमपुरी अपनी पत्नी से खिन्न हो गये थे। ऐसा लग रहा था कि शायद उनके रिश्ते सामान्य न रह पाएँ क्योंकि पुस्तक में उदारता से ओमपुरी के विभिन्न स्त्रियों से छोटी उम्र से पिछले समय तक रहे सम्बन्धों का जिक्र था। पुस्तक के जारी होने के कुछ समय पहले यह तनाव दूर हुआ मगर ऐसा नहीं हुआ कि वे अंश हटा लिए गये हों। हिन्दी में जो किताब प्रकाशित हुई है, उसमें तेरह साल की उम्र से लेकर लम्बे समय तक ऐसे कुछ प्रसंगों का समावेश है। खैर, यह ऐसी कोई रस लेकर बात करने वाली बात नहीं है।

यह पुस्तक खासतौर पर हमें भारतीय सिनेमा के एक ऐसे महत्वपूर्ण कलाकार के बचपन से लेक र अब तक संघर्ष, उतार-चढ़ावों, सपनों और सरोकारों को सहजता से देख पाने के मौके देती है। इस किताब का मूल अंग्रेजी संस्करण अपने आपमें लेखकीय दृष्टि से कितना सशक्त और प्रभावी है, यह तो उस संस्करण के आकलनकर्ता ही जाने मगर हिन्दी संस्करण के प्रस्तुतिकरण में अनेक खामियाँ हैं। अंग्रेजी से हिन्दी में सपाट अनुवाद दरअसल व्यवस्थित रूपान्तर नहीं होता, इसी कारण ओमपुरी की पर्सनैलिटी को जिक्र और सम्बोधन के स्तर पर गरिमापूर्ण नहीं बनाया जा सका है। पंजाब के छोटे से गाँव से अपनी यात्रा शुरू करने वाला मामूली सा इन्सान जो ओमप्रकाश पुरी के नाम से जाना जाता हो, गरीबी और आर्थिक कठिनाई में भूखा भी रहा।

इस किताब का सबसे अच्छा पहलू ओमपुरी और नसीरुद्दीन शाह के परस्पर सम्बन्धों और मित्रता को जानना है। सार्थक सिनेमा की पृष्ठभूमि में दोनों को स्पर्धी कहा जाता है। सिनेमा से इतर दोनों के रिश्तों को कोई नहीं जानता मगर यह सचाई है कि रंगमंच से लेकर पुणे फिल्म इन्स्टीट्यूट और वहाँ से मुम्बई के संघर्ष और पहली फिल्म तक ही नहीं आज तक दोनों गहरे मित्र हैं। मुम्बई के एक रेस्त्राँ में ओमपुरी ने नसीर के प्राण उस समय सामने आकर बचाए थे जब साथ का एक मित्र पीछे से अचानक चाकू से नसीर पर वार करने जा रहा था। दोनों ने साथ में जाने भी दो यारों, अर्धसत्य, द्रोहकाल, मकबूल, बोलो राम सहित अनेक अहम फिल्मों में काम भी किया है। यह किताब सहज पाठ के हिसाब से दिलचस्प है।

वैसे, प्रूफ, सम्पादन, खण्ड चयन आदि में और बेहतर काम हो सकता था यदि इसे नंदिता की जगह कोई जानकार सिने-विश£ेषक ओमपुरी के समर्थन से लिख पाता।

कोई टिप्पणी नहीं: