सोमवार, 16 अगस्त 2010

अपने-अपने मूल्य और समझौते

एक पूरे जमाने का अन्तर नजर आता है। एक समय था जब सिनेमा की नायिका को अभिनेत्री कहा जाता था। अभिनेत्री की व्याख्या स्त्री जो अभिनय करती है या करना जानती है। अभिनेता, पुरुष कलाकारों के लिए, जो अभिनय करना जानते हैं। इसी तरह का व्यवहारसम्मत सम्बोधन बरसों-बरस रहा है। अभिनेता और अभिनेत्री शब्द की भी अपनी गरिमा है। इसके तक इतर विभाजन नहीं थे। पहले सिनेमा में पढ़े-लिखे, गुणीजन और अपढ़ मगर गहरे अनुभवी, दोनों ही किस्म के लोग पारंगत रहे हैं। महानगर से लेकर ठेठ गाँव से आये अभिनेता-अभिनेत्रियों ने भी अपनी उपस्थिति को बखूबी रेखांकित किया है। यदि हम देव आनंद, अशोक कुमार, दिलीप कुमार, बलराज साहनी, राजकुमार, सुनील दत्त, राजकपूर, शम्मी और शशि कपूर, मोतीलाल को जानते हैं तो उसी तरह हम मेहमूद, जॉनी वाकर, सी.एस. दुबे, कन्हैयालाल, याकूब, गोप, असित सेन, नजीर हुसैन, नाना पलसीकर, जयराज, ओमप्रकाश को भी उतना ही जानते हैं।

यदि हमारे सामने शर्मिला टैगोर, वहीदा रहमान, नादिरा, कामिनी कौशल, शोभना समर्थ, नूतन, जया भादुड़ी, साधना आदि के उदाहरण हैं तो उसी प्रकार सुरैया, मीना कुमारी, मधुबाला, अमिता, लीला मिश्रा के भी। सभी ने अपने काम से, अपने सिनेमा से, अपने किरदारों से सम्मान अर्जित किया है। दर्शकों के जेहन में आज भी वैसी ही उनकी स्मृतियाँ हैं जो उनकी सक्रियता के काल में रही हैं। बाद में एक साथ समय की तब्दीली, पढ़े-लिखे और शो-बिजनेस में अपनी अपेक्षाकृत चमक-दमक वाली छबि को बनाने और उस तरह का व्यवहार करने वाले अभिनेता-अभिनेत्री कब हीरो-हीरोइन के रूप में बदल गये, कह पाना मुश्किल है। हमने अचानक ये नये नाम देखे। हीरो-हीरोइन में परिवर्तित हो जाने वाले सम्बोधनों के साथ ही सबसे ज्यादा गरिमा और गम्भीरता प्रभावित हुई।

किसी समय में मूल्य और गरिमा को स्थापित करने वाले कलाकारों की एक बड़ी संख्या हुआ करती थी। निजी या पारिवारिक जीवन चाहे जितना सहज या ऊहापोह से भरा हो, कैसे भी संंघर्ष साथ चल रहे हों मगर एक मर्यादा हमेशा ही बनी रही। बाद में वह सब क्षरित होने लगा। अभिनेत्री से हीरोइन बनी सिनेमा की नायिका को प्रतिभा से ज्यादा काया पर ऐतबार हो गया। अभिनेताओं से हीरो बने नायक ज्यादा कृत्रिम और परस्पर विद्वेष रखने वाले हो गये। उन्हें अपनी प्रतिभा के बल पर या अपने आत्मविश्वास से ज्यादा दूसरे नायक के अवसरों को कम करना और यदि साथ काम कर रहा है, तो उसकी भूमिका को सिकोड़ देने में अपना समय खर्च करना पड़ा। स्पर्धा ने गलाकाट प्रतियोगिता का रूप लिया। अपने नसीब और क्षमताओं से ज्यादा दूसरे की किस्मत पर रश्क करने का स्वभाव, स्थायी भाव बन गया। मूल्य न जाने कहाँ चले गये, समझौते उभरकर सामने आना शुरू हो गये। हम आज के अपने सिनेमा में स्त्री की जगह को शर्म की जगह पर देखते हैं। गुणो के साथ किसका जिक्र किया जाये, यह सोचना पड़ता है।

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