रविवार, 29 अगस्त 2010

गुरुदत्त की प्यासा, एक अनगढ़ फिल्म

प्यासा का प्रदर्शन काल 57 का है। आजादी के ठीक दस साल बाद की यह फिल्म स्वार्थी और मतलबपरस्त दुनिया को बेनकाब करके रख देती है। यह एक गहरे और मर्मस्पशी कथानक के माध्यम से हमारे आसपास की ऐसी तस्वीर रचती है, जिसका हर चरित्र हमें जाना-पहचाना लगता है। आजाद मुल्क में एक बेहतर दुनिया की कल्पना, हर इन्सान का ख्वाब हो सकता है, ऐसा लाजमी भी है। यहाँ कहानी परिवार से शुरू होती है और समाज तक जाती है। हमारे सामने विभिन्न किरदारों के माध्यम से ऐसे चरित्र नुमायाँ होते हैं जिनका चेहरा यकबयक मुखौटे में तब्दील हो जाता है और मुखौटा अचानक ही चेहरा हो जाता है। गुरुदत्त हिन्दी सिनेमा के महान फिल्मकार थे। यह फिल्म उनकी असाधारण कृति है जिसका उदाहरण फिल्म इतिहास में उनकी अन्य अनेक महत्वपूर्ण फिल्मों के साथ प्रमुखता से दिया जाता है।

यह एक संवेदनशील शायर की कहानी है जो अपने परिवार के लिए व्यर्थ की जिन्दगी जी रहा है, जो सभी के लिए तकलीफदेह है। उसका परिवार उसकी लिखी रचनाओं को कबाड़ी और रद्दी वाले को बेच देता है, जिसकी तलाश में नायक दर-दर भटकता है। उसकी रचनाएँ एक वैश्या के पास मिल जाती हैं। विजय, नायक का ख्वाब इन रचनाओं के चयन के प्रकाशन का है मगर हर जगह हतोत्साह और नकली व्यवहार उसे तोडक़र रख देता है। जब अचानक दुर्घटना में किसी व्यक्ति के मारे जाने के बाद उसकी शिनाख्त नायक के रूप में होती है तो माहौल बदल जाता है।

हिकारत वालों की स्वार्थपरकता हमदर्दी में तब्दील होने ढोंग करती है। फिल्म का क्लायमेक्स है, किताब का लोकार्पण हो रहा है। कभी नायक की प्रेयसी रही, अब प्रकाशक की पत्नी है। कवि को श्रद्धांजलियाँ दी जा रही हैं, ऐसे में कवि उसी सभागार में आकर खड़ा हो जाता है। सारे चेहरों पर रोशनी पड़ती है और नायक की छाया अंधेरे में नजर आती है। मुकम्मल दोहरेपन में जैसे रंगे हाथों पकड़ लिए गये ऐसे दुनियादारों का नायक बहिष्कार करके चल देता है। फिल्म मन पर भारी दबाव देकर खत्म होती है।

एक नायक और निर्देशक के रूप में यह पूरी तरह गुरुदत्त की फिल्म है। वहीदा रहमान, माला सिन्हा, रहमान, मेहमूद फिल्म के महत्वपूर्ण कलाकार हैं। साहिर के लिखे गाने, सचिन देव बर्मन का संगीत अमर हैं। ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, जैसे गहरे निराशा बोध के गानों और परेशान करने वाली फिल्म में जॉनी वाकर पर एक रोचक गीत भी फिल्माया गया है, सर जो तेरा चकराए, या दिल डूबा जाए। ऐसा लगता है कि यह साहिर के गीतों को निगाहों से स्पर्श करते, पढ़ते आगे बढ़ती है।

इस फिल्म के सिने-छायाकार व्ही.के. मूर्ति को पिछले दिनों ही दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भारत सरकार ने सम्मानित किया था।

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