हिन्दी सिनेमा में पिता की भूमिका, परिवार में सम्बन्ध और बेटे-बेटियों सभी से रिश्तों की बारीकियों और भावनाओं पर तमाम फिल्में वक्त-वक्त पर बनी हैं। सिनेमा में पिता की भावुक उपस्थिति हमें मर्मभेदी लगती है तो पिता के साथ द्वन्द्व को हॉल में कुर्सी पर बैठे हम अलग रोमांच में जीते हैं। समय-समय पर फिल्मकारों ने इस तरह के कोणों को बखूबी प्रस्तुत भी किया है। गोविन्द निहलानी और महेश मांजरेकर ने अपने-अपने समय में पिता नाम से फिल्में बनायी हैं। एक फूल दो माली में मन्नाडे का गाया गाना, तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझे दीप कहूँ या तारा, मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राजदुलारा, पिता के अपने पुत्र के प्रति प्रेम और कामना को गहरी संवेदना के साथ व्यक्त करता है।
सलीम-जावेद ने अमिताभ बच्चन को लेकर बहुत सी सफल फिल्में लिखीं जिनमें खास पिता के साथ तनाव और तकरार को प्रभावी संवादों और प्रतिभासम्पन्न कलाकारों के बीच दर्शकों ने देखकर खूब तालियाँ बजायीं। हम ऐसी फिल्मों में त्रिशूल, शक्ति आदि को याद कर सकते हैं। त्रिशूल में अमिताभ बच्चन के सामने संजीव कुमार पिता के रूप में थे तो शक्ति में दिलीप कुमार ने अपने संवादों से कई बार अमिताभ बच्चन को नजरें झुकाने पर विवश कर दिया था। अमिताभ बच्चन प्रकाश मेहरा की फिल्म शराबी में भी अपने व्यावसायी पिता के खिलाफ रहते हैं जिनके पास बेटे के लिए वक्त नहीं है। अमिताभ बच्चन को तो खास ऐसी फिल्मों के माध्यम से ही सफलता मिली जिसमें वे पिता के विरुद्ध रहे। प्रकाश मेहरा की ही एक फिल्म लावारिस भी इसी सन्दर्भ में याद आती है जिसमें अमजद खान ने उनके पिता की भूमिका निभायी थी। दीवार में बड़े हो चुके विजय की स्मृतियों में पिता है, जिसको अपने संवाद में बार-बार, अपने पक्ष में बोलते हुए चोर की तोहमत वे दोहराते हैं।
इन फिल्मों से अलग बात करें तो कुछ बड़ी अच्छी फिल्में भी पिता के किरदारों को आदर्श रूप में प्रस्तुत करने वाली हमें ध्यान आती हैं। प्रियदर्शन की गर्दिश में अमरीश पुरी हवलदार पिता हैं जो अपने बेटे के इन्स्पेक्टर बनने का ख्वाब लिए हुए है मगर मार खाते पिता की रक्षा करने में अनायास यह बेटा अपराधी बन जाता है। सारांश में अनुपम खेर का अभिनय बड़ा मर्मस्पर्शी है जो ऐसे पिता के दुख को सामने लाता है जो अपने मरे हुए बेटे की अस्थियाँ प्राप्त करने के लिए कस्टम के चक्कर लगा रहा है। क्लायमेक्स में झुंझलाए पिता का कस्टम अधिकारी से रुंधे गले में बोला अनुपम खेर का संवाद उनको बड़ी ऊँचाई पर ले जाता है। आज तक ऐसा काम अनुपम खेर नहीं कर पाए। कुछ फूहड़ कॉमेडियाँ भी हैं डेविड धवन मार्का फिल्मों में, जैसे आँखें जिसमें कादर खान, गोविन्दा और चंकी के पिता होते हैं।
4 टिप्पणियां:
सुंदर और सटीक लेख. आमतौर इस एंगल की चर्चा नहीं होती है. पत्रिका में भी मैं आपके लेख नियमित पढ़ता हूँ. आज ब्लॉग देखा अब नियमित रूप से देखा करूंगा.
किसी अखबार या पत्रिका में पढ़ा था कि दिलीप कुमार ने स्वयं बैठकर शक्ति का संपादन इस प्रकार से करवाया था कि अमिताभ उन्नीसे नज़र आए। क्या यह सही है? शायद ये फ़िल्म कुली की दुर्घटना के बाद की है तो अभिताभ का एनर्जी लेवल वैसे भी कम ही होगा।
आपका आभारी हूँ मयूर जी। पत्रिका के स्तंभ को आप सभी के स्नेह ने पठनीय बनाया है। अगले 24सितंबर को यह स्तंभ 1 साल पूरा कर लेगा। आपकी आत्मीयता ऐसी ही रहे, यह अनुरोध है।
अतुल जी, ऐसा तो सच नहीं लगता। दिलीप कुमार इस तरह के स्वभाव वाले कलाकार नहीं हैं। शशक्त कलाकार का आत्मविश्वास उसे ऐसा करने के लिए कभी प्रेरित नहीं करता।
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