सोमवार, 2 अगस्त 2010

सम्पादन और शहादत की परिस्थितियाँ

सिनेमा माध्यम की अपनी अनिवार्यताएँ हैं और अपनी विडम्बनाएँ। दरअसल एक सेकेण्ड में बत्तीस फ्रेम चलने वाला सिनेमा तारतम्यता, कसावट और प्रभाव की आवश्यकताओं के चलते बन चुकने के बाद सम्पादन की अवस्था में आकर सार्थकता की शर्तों पर कुछ इस तरह निर्मम हो जाता है कि उसे अपनी सम्वेदना को निश्चेत करके काट-छाँट करनी पड़ती है। इस माध्यम के अनुभवी और जानकार लोग इस अवस्था की विवशता को समझते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जो नहीं समझते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं जो समझकर भी नहीं समझते हैं।


फिल्म का सम्पादन आदर्श वक्त से तीन गुना यादा बनायी गयी फिल्म को वक्त के अनुशासन में उसके सशक्त प्रभावों के साथ लाने का काम करता है। कुशल फिल्म सम्पादक की खासियत ही यही होती है कि वह हर फ्रेम का महत्व समझता है। वह गति और सम्प्रेषण की निगाह का पारखी होता है। जब कोई भी सम्पादक फिल्म एडिट कर रहा होता है तब उसके पास निर्देशक बैठा जरूर होता है मगर सम्पादक निर्देशक से अनुशासित नहीं होता। दोनों परस्पर एक-दूसरे सहमत होकर दृश्य दर दृश्य आगे बढ़ते हैं। फिल्म को समय के मापदण्ड के अनुरूप लाने में कई तरह के समझौते करने होते हैं। कई निर्णय तात्कालिक तौर पर अप्रिय लगते हैं। कई बार एपेन्डिक्स को अनुपयोगी जानकर हटाया जाता है मगर उसके पीछे मरीज की जान की परवाह मुख्य कारण होता है। ऐसा कदाचित मरीज की जान जोखिम में डालने के लिए नहीं किया जाता। फिल्म माध्यम में रचे-बसे और बरसों के तजुर्बे का दावा करने वाले लोग भी कई बार व्यवहार में अजीब सा रवैया अपनाते हैं जो वाकई उनके तजुर्बे पर प्रश् चिन्ह लगाता है।

ऐसा ही एक प्रसंग एक प्रतिष्ठित निर्देशक के सामने घटित हुआ जब एक कलाकार ने उनसे शिकवा किया कि पच्चीस दिन लगातार काम करने के बाद भी फिल्म में वे पाँच सेकेण्ड दिखायी नहीं दिए। दक्ष और अनुभवी निर्देशक ने गम्भीरता और विनम्रता से उनको समग्रता में अपने काम और माध्यम की व्यवहारिक स्थितियों और विवशताओं को बताना चाहा लेकिन वे कलाकार उत्तेजना में अपना आपा इस तरह खो बैठे कि निर्देशक से उन्होंने सीधे-सीधे कह दिया कि वे अब जीवन में कभी उनके साथ काम नहीं करेंगे। वे किंचित इस बात से सहमत होने को तैयार नहीं हुए कि जिस सम्पादित स्वरूप में फिल्म प्रदर्शित होकर सुपरहिट हुई उसमें सबसे यादा दृश्य तो एक बड़े और पापुलर सितारे के कट गये। सम्पादन और शहादत की परिस्थितियों को यदि माध्यम का जानकार न समझे तो अफसोसजनक बात है। वह निर्देशक समाधान करने में अपने आपको असमर्थ पाता है जिसकी फिल्म में आठ मल्टी स्टार शामिल होें, सब के सब खासे दमदार हों और उसे सबके लिए बराबर का वक्त निकालना हो।

3 टिप्‍पणियां:

preeti khare ने कहा…

''Badhai or shubhkamna sandesh''

Suneelji, Blog ki dunia me swagat hai.''MA SARASWATI''aapko sakaratmak urja ke saath,lekhan ke kshetra me aage badhaye,or aapka path-pradarshit karen. Meri apeksha hai ki ,aapke dwara hame uddeshyapurna,shabda,shilp se otprot sahitya ka labh mile.Is zimmedari ka vahan krte hue aapka lekhan or utkrasht ho yehi meri shubhkamnayen hain.Aapka bhavishya mangalmay ho or aap swasthya rhen.Shayad main lekhan or sahitya ke dharatal pr kuchh zyada ki ummeed kr rhi hun,lekin mera vishwas hai ki aap,sahitya jagat se jude login ko nirash nahi karenge.Aapke sahityik safar me hm sabhi pathak vargon ka saath rhega,aisa mera wada hai. pathak vrga ka sahyog rhega

सुनील मिश्र ने कहा…

प्रीति जी
आपकी शुभकामनाओं का बहुत-बहुत आभार। यह बात मुझे हमेशा प्रभावित करती है कि आप मेरे लेखन के प्रति अत्यंत आश्वस्त हैं। जाहिर है कि यह मेरे लिए खुशकिस्मती है। ऐसे में अपने दायित्वों की तरफ और सजग होना पड़ता है। कोशिश रहेगी, दावा नहीं है पर अपने काम को इसी भावना से करता रहूँगा।

Atul Sharma ने कहा…

मीडिया से जुड़ा हूँ इसलिए संपादन का महत्त्व समझता हूँ। फ़िल्म की गति बनाए रखने में संपादन का भी बड़ा योगदान होता है।