महान फिल्मकार बिमल राय की फिल्मों के एडीटर रहे हृषिकेश मुखर्जी जब आगे चलकर स्वयं निर्देशक बने तो उन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ जीवन की बड़ी सहज और स्वाभाविक परिस्थितियों को अपनी रचनाशीलता का आधार बनाया। एक सम्पादक के रूप में उनकी दृष्टि गहराई से हम बिमल राय की अनेक फिल्मों में देख सकते हैं। आज जिस फिल्म अनुराधा की चर्चा कर रहे हैं वो हृषि दा की तीसरी फिल्म थी।
अनुराधा, उन्होंने मुसाफिर और अनाड़ी के बाद बनायी थी जिसमें पण्डित रविशंकर का संगीत था। बलराज साहनी, लीला नायडू, अभिभट्टाचार्य, नजीर हुसैन, असित सेन इस फिल्म के प्रमुख कलाकार थे। अनुराधा एक बड़ी खूबसूरत और मर्मस्पर्शी फिल्म है जो देखते हुए आपके मन में गहरे उतर जाती है। कहानी यों तो बहुत सहज सी है मगर उसका ट्रीटमेंट जिस गहराई से हुआ है, वह इसे एक सम्वेदनशील फिल्म के रूप में हमें हमेशा याद दिलाता है। नाम से जाहिर है, अनुराधा नायिका है जिसका विवाह के पेशे के प्रति प्रतिबद्ध और अत्यन्त कर्मठ डॉक्टर से हो जाता है। विवाह के बाद वह एक छोटे से गाँव में पति के साथ आ जाती है। डॉक्टर तन्मयता से मरीजों की सेवा करता है। उनके प्रति मानवीय सम्वेदना रखता है। जिस तरह डॉक्टर को भगवान का रूप कहा जाता है, गाँव के लोग उसे इसी रूप में देखते हैं और उसके प्रति बड़ी श्रद्धा रखते हैं। यह डॉक्टर केवल दवा नहीं देता बल्कि लोगों को जीवन और निबाह की सीख भी देता है।
अपने प्रोफेशन के प्रति उसका इतना डूबा हुआ होना धीरे-धीरे किस तरह उसके घर में अनुराधा को उपेक्षित और नितान्त अकेला करता चला जा रहा है, इसका उसे ख्याल नहीं है। वह अपनी पत्नी को कोई दुख नहीं देता, प्रताडि़त नहीं करता मगर पूरे वक्त उसकी काम के प्रति एकाग्रता घर में उसकी जीवन्त उपस्थिति को प्रभावित करती है। डॉक्टर की एक प्यारी सी बेटी है जो अपने पिता और माँ के बीच स्वाभाविक और निश्छल सेतु की तरह है मगर किसी जमाने में अच्छी गायिका रही पत्नी को यह लगने लगता है कि उसे अपने घर चले जाना चाहिए। जिस दिन उसको जाना है उसी दिन गाँव में वरिष्ठ डॉक्टरों का एक ग्रुप आया है जो रात इस डॉक्टर के घर खाना खाने आना चाहता है। पति, पत्नी से अनुरोध करता है कि आज न जाये। डॉक्टरों के ग्रुप के एक वरिष्ठ डॉक्टर घर में खाना खाते हैं और वे उतनी ही देर में सारी बातों को समझ जाते हैं। वे नायक की पत्नी से पिता की तरह बात करते हैं फिर डॉक्टर को नसीहत देते हैं। हृदय को छू लेने वाला आत्मावलोकन है। अन्त यह है कि वह अपने पिता के यहाँ नहीं जा रही है।
1 टिप्पणी:
ऋषिदा की अधिकांश फ़िल्मे देखी हैं। याद करने पर सबसे पहले चुपके-चुपके और गोलमाल का नाम ही याद आता है। अनुराधा की कहानी कहीं अधिक भावनात्मक लग रही है। जल्दी ही इसे देखने की व्यवस्था करता हूँ।
एक टिप्पणी भेजें