बिमल राय जब मुम्बई गये, 1951 में माँ फिल्म बनाने, उस समय विभाजन के बाद का सिनेमा का परिदृश्य नरम, साहित्य का परिदृश्य नरम, न्यू थिएटर्स वाले भी परेशानियों में थे। वे एक फिल्म बनाने के लिए बॉम्बे टॉकीज आये पर वो अपनी टीम लेकर आये जिसमें उनके साथ नबेन्दु घोष भी थे क्योंकि लेखन और साहित्य के काम उन्हीं के जिम्मे होते थे। उस समय बॉम्बे टॉकीज की भी हालत खराब थी। उस समय दस माह से लोगों को तनख्वाह नहीं मिली थी। उस समय एस. एच. मुंशी ने बाप-बेटी फिल्म बनायी। इस फिल्म के लिए उन्हें साइन किया और उसके बाद किस तरह का संघर्ष शुरू हुआ, वह इसके आगे की बात है। बाम्बे टॉकीज से तनख्वाह मिलना शुरू होने तक यह संघर्ष चलता रहा।
बाप-बेटी में एक लडक़ी की कहानी थी जो होस्टल में रहती है और सब लोग मिलकर उसे चिढ़ाते हैं कि कोई तुमसे मिलने नहीं आता। एक दिन वो लडक़ी स्टेशन पर जाती है और एक व्यक्ति के सामने जाकर उससे कहती है कि आप मेरे पापा हो। रंजन ने वो कैरेक्टर किया था। वो आश्चर्य में पूछते हैं, पापा? इस पर लडक़ी कहती है कि देखो आप मुझको न मत करना। मेरे दोस्त मेरे पीछे खड़े हैं, और वो मुझे बहुत चिढ़ाते हैं। आप बस हाँ-हाँ बोलते जाना, जो मैं कहूँ। एक दिन यह रिश्ता सचमुच ऐसा हो जाता है कि वो व्यक्ति उस बच्ची को एक पिता की तरह प्यार करने लगता है। उसमें एक सीन होता है कि उंगली पर उंगली रखकर झूठ बोलो तो उसमें कोई पाप नहीं लगता।
ये कहानी उन्होंने पहले एस. मुखर्जी को सुनायी थी। इस पर एस. मुखर्जी ने कहा था कि ये कहानी अच्छी है पर मैं नहीं बनाऊँगा। पूछा गया, क्यों? तो वे बोले, क्योंकि आय एम ए बिजनेस परसन। उनसे पूछा, इसका मतलब? तो वे बोले, बिजनेस के लिए बहुत अच्छी कहानी भी अच्छी नहीं होती। उनसे नबेन्दु ने पूछा कि फिर बिजनेस के लिए क्या चाहिए? एस. मुखर्जी ने कहा कि उसके भी कुछ केलकुलेशन हैं। जैसे आप कोई खाना बनाते हो और उसमें स्वाद लाना चाहते हो, उसके लिए पाँच मसाले होते हैं। उसी तरह इसके भी स्पाइसेज होते हैं। उसकी प्रभाव में ये कहानी मुंशी जी ने सुनी और बनाना मंजूर किया। 51-52 में ये फिल्म बनी और इसके प्रदर्शन के बाद फिर बिमल राय ने दो बीघा जमीन बनाना तय किया और अशोक कुमार चाहते थे कि बिमल राय परिणीता निर्देशित करें। ये दोनों ही फिल्में एक साथ बनी थीं।
मुंशी जी बिहार के रहने वाले थे। नबेन्दु उसी समय तीसरी कसम पर काम कर रहे थे। उनको किसी ने बताया था कि मैला आँचल बहुत ही मर्मस्पर्शी और ग्राह्य करने वाला उपन्यास है, रेणु का। नबेन्दु ने वो उपन्यास पढ़ा और तय किया कि मुझे इस फिल्म पर काम करना है। यह डाग्दर बाबू के बनने का प्रसंग है। मुंशी जी ने नबेन्दु दा को कहा कि यदि आप करेंगे तो हम इसे प्रोड्यूज करेंगे। इसकी तैयारी तब से थी, साठ के दशक से लेकिन इसकी शुरूआत में ज्यादा समय लग गया। शूटिंग की गयी बिहार में। रेणु तब थे। धर्मेन्द्र तब डॉक्टर का रोल कर रहे थे। जया भादुड़ी और उत्पल दत्त की बेटी बनी थीं। उसमें और भी बहुत सारे कैरेक्टर, बहुत अच्छे-अच्छे लोग थे। अजितेश बंदोपाध्याय, बहुत सारे और भी। शूटिंग अस्सी प्रतिशत हो गयी थी। उसी समय निर्माता और वितरक में कुछ असहमतियाँ हो गयीं, तो उन्होंने आगे फिल्म को पूरा ही नहीं किया। बीस प्रतिशत काम बाकी रह गया था। इस फिल्म में संगीत आर.डी. बर्मन का था। बड़ा ही खूबसूरत संगीत। आंचलिक आस्वाद का, मेलोडियस, गेय प्रभाव से भरा। आशा जी ने इसमें गाया था। एक गाना लता जी का था। इस गाने की रेकॉर्डिंग तब नहीं हुई थी। पंचम का यह काम बड़ा महत्वपूर्ण था। दो गाने तो बहुत ही अच्छे थे।
बहुत दिनों बाद नबेन्दु घोष एक फिल्म निर्देशित कर रहे थे, प्रेम एक कविता। अशोक कुमार, इन्द्राणी मुखर्जी, ऐसे ही और लोग थे। सौमित्र चटर्जी उसमें काम करने वाले थे। अशोक कुमार-सौमित्र चटर्जी, जैसे बन्दिनी में एक उम्रदराज और एक युवा। वैसी ही कहानी लगभग। उसके लिए एस.डी. बर्मन ने गाना रेकॉर्ड भी किया था। दो गाने थे, उसमेें। एक गाना था, नींद चुराए, चैन चुराए, जो बाद में अनुराग फिल्म में ले लिया गया। उसमें अच्छी बात तो यह रही कि वो गाना भी आगे आया और अलग इस्तेमाल हुआ। कई बार ऐसा होता है कि किसी के लिए तैयार किया गया मगर वहाँ उसका इस्तेमाल नहीं हो पाया। दुख होता है कि आर.डी. बर्मन के गाने जो उन्होंने डाग्दर बाबू के लिए कम्पोज किए थे, वो कई काम में भी नहीं आ पाये, इस्तेमाल भी नहीं हुए और खो गये। डाग्दर बाबू के प्रोड्यूसर भी गुजर गये। उनके बेटे थे, पता नहीं उन्होंने क्या किया। बाद में मेरे भाई ने भी पता लगाना चाहा मगर कुछ पता नहीं चला। अधिकार की लड़ाई थी। निर्माता ने वितरक से पैसे लिए थे, उसी की वजह से सब बिगड़ गया।
एक और दूसरी फिल्म नबेन्दु घोष बनाने वाले थे, उसका भी किस्सा है, बनी नहीं वो भी। गौरीचंद्र, वो गुरुदत्त बनाने वाले थे। गीता दत्त उसमें काम करने वाली थीं। वो भी फिल्म नहीं बनी और ये मोतीलाल पादरी जो आखिरी फिल्म उनकी है, अगर ये फिल्म बनती, जैसी कि उनकी इच्छा थी, त्रयी बनाने की जब उन्होंने तृषाग्रिी बनायी थी। तृषाग्रिी का जो कोर है, ये एक संत जो भगवान, ईश्वर, अल्लाह, गॉड किसी भी नाम को कह लीजिए, से सीधे सरोकार स्थापित करने के भ्रम को जीता है। एक दिन उसका विश्वास डगमगाता है, उस विश्वास के डगमगाने की कहानी थी तृषाग्रिी। मोतीलाल पादरी, एक पादरी व्यक्ति की कहानी थी। ये भी वही कहानी थी कि एक आदमी अपने विश्वास को ही अस्थिर होते देख रहा है। एक दिन वह इस बात को महसूस करता है कि यह किस तरह का यथार्थ है? मैं दुनिया को ज्ञान दे रहा हूँ मगर अपने भीतर के अंधकार का क्या करूँ? नबेन्दु दा ने जब तृषाग्रिी बनायी थी तभी वे सत्तर साल के हो चुके थे। वे उस समय दूसरी फिल्म मोतीलाल पादरी बनाना चाहते थे। एक तीसरी फिल्म उनके मन में पण्डित कैरेक्टर को लेकर थी।
एक निर्देशक के रूप में यदि वे ये फिल्में बना पाते तो उनकी पहचान और होती, निश्चित ही। नबेन्दु घोष ने अपने जीवन में सृजनात्मक सक्रियता के साथ बहुत सारी छबियों को सराहनीय ढंग से जिया और लोगों में आदर की निगाह से देखे गये। उन्होंने जितनी कहानी लिखी हैं, जितने उपन्यास लिखे हैं वो अपने आपमें अद्भुत है। इतना व्यापक, विविध और प्रशंसनीय लेखन सचमुच कई बार अचम्भित करता है।
11 टिप्पणियां:
यहाँ आप का ब्लाग देख कर प्रसन्नता हुई।
हिन्दी ब्लाग जगत में आप का स्वागत है।
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
ब्लॉगजगत में आपके स्वागत के लिए मैं क्या कहूँ, बस आपको यहाँ देखकर बहुत अच्छा लग रहा है। पत्रिका में टेक रीटेक रोज़ पढ़ना व्यसन है।
मुंशीजी और नबेंदुजी के नामों के अलावा इतनी जानकारी नहीं थी। क्या ऐसे गीतों को ढूंढकर संग्रहीत नहीं किया जा सकता जो बाज़ार में नहीं आ पाए लेकिन सुंदर कंपोज़ीशन हैं?
इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद। उम्मीद है आगे भी इस तरह की जानकारी मिलती रहेगी।
आपका बहुत आभार दिनेश जी।
आत्मीयता के लिए आभारी हूँ अजय जी। मैं और ब्लॉग्स भी पढ़ता हूँ। धन्यवाद।
अतुल जी, बहुत आभार आपका। सिनेमा पर अपने अध्ययन, ज्ञान और परिपक्वता के आधार पर ऐसे ही लिखता रहूँगा।
आपके परामर्श का शुक्रिया आनंद जी।
संगीता जी, आपका आभार की सराहा और स्वागत किया। बेहतर सृजनात्मक जतन करता रहूँगा, वादा है।
धन्यवाद वीणा जी।
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