पहले वक्त का संगीत किसी योग-सुयोग से ही सुनने को मिल पाता है। चलती कार के ड्राइवर की सुरुचि पर भी यह सब निर्भर रहता है। ऐसे ही एक ड्राइवर की लगायी सीडी में जब चांदनी का गीत, तेरे मेरे ओठों पे मीठे-मीठे गीत मितवा, आगे-आगे चले हम पीछे-पीछे प्रीत मितवा, बजने लगा तो फिल्म याद आ गयी। उसका कालखण्ड याद आ गया। यश चोपड़ा याद आ गये। आनंद बख्शी याद आ गये और शिव-हरि याद आ गये। और लता मंगेशकर और बाबला मेहता भी याद आ गये जिन्होंने इस गीत को गाया था। लगभग पाँच मिनट बजते रहे इस गाने में पण्डित शिव कुमार शर्मा और उनकी शिष्य परम्परा का सन्तूर और पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया और उनकी शिष्य परम्परा की बाँसुरी रोम-रोम में प्रवाहित होती प्रतीत हुई। गाने के बीच में बजती बाँसुरी से यकायक, देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए, की धुन बजने लगी और दूसरी लाइन, दूर तक निगाह में हैं गुल खिले हुए, के बाद फिर, मितवा गाने के अनुकूल होकर संगीत गाने को आगे लिए बढ़ चला।
इस मीठे गाने ने अनुभूतियों में जो रस घोला उसी से इस बात को ध्यान करना शुरू किया कि अब तो इस तरह का संगीत, ऐसे गीत और आवाज का ऐसा माधुर्य नजर ही नहीं आता। सुरों के संग्राम के इस बड़े कठिन और एक-दूसरे का गिरेबान पकड़ते गायक-संगीतकारों के बीच यह सम्भव भी कैसे है? कैसे हो भला गीत लिखा जाना, फूल तुम्हें भेजा है खत में? अच्छे गीत-संगीत का समय काफी बाद तक अच्छा रहा है। पिछले दस सालों में देखते-ही-देखते सब जिस तरह से बिगड़ गया, उसका जरूर पता नहीं चला। अब तो कैमरा गीत गाते कलाकारों से सौ फीट दूरी रखता है। गाना बजता रहता है, कलाकार को लिप-मूमेंट की सावधानी या चिन्ता ही नहीं करनी होती। पहले इसकी फिक्र बहुत की जाती थी। बेमिसाल गायक मरहूम मोहम्मद रफी तो देव आनंद के लिए भी गाते थे और गुरुदत्त के लिए भी, शम्मी कपूर के लिए भी गाते थे और धर्मेन्द्र के लिए भी।
सभी कलाकारों की आवाज होने का हुनर इसी वजह से था क्योंकि उस समय गाने का फिल्मांकन भी एक सृजन हुआ करता था। अब वैसा नहीं रहा। हम उस जमाने को अब लगभग पूरी तरह भूल जाएँ जब फिल्म किसी कहानी पर बनती थी। कहानी में परिस्थितियों के आधार पर गीत रचना के लिए गीतकार को कहा जाता था। जब उसका संगीत तैयार होता था तब निर्देशक और गीतकार, गायक और अभिनेता-अभिनेत्रियों के साथ बैठते थे। बाद में सभी ने जब एक साथ कई दाढिय़ों में साबुन लगाकर सबको इन्तजार में बैठाना शुरू कर दिया, तब सारा बेड़ा गर्क हो गया। लोकप्रिय फिल्म संस्कृति में प्रेम, कहानी का मुख्य आधार रहा है। अब प्रेम सब जगह से अनुपस्थित है।
2 टिप्पणियां:
आज दिनांक 20 सितम्बर 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट अनुपस्थित प्रेम शीर्षक से ही प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।
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