सत्तर के दशक में आयी और नये सिनेमा के उत्कृष्ट फिल्मकार की पहली कथा फिल्म अंकुर पर इस रविवार चर्चा करना उपयुक्त लगता है। श्याम बेनेगल, महान फिल्मकार सत्यजित राय से प्रभावित थे। अंकुर के संवाद पण्डित सत्येदव दुबे ने लिखे थे। फिल्म का सिने-छायांकन गोविन्द निहलानी ने किया था और संगीतकार थे वनराज भाटिया। श्याम बाबू का यही टीम ऑफ एक्सीलेंस था। दक्षिण के एक सुदूर गाँव में इसका फिल्मांकन किया गया था। शाबाना आजमी, साधु मेहर और अनंत नाग फिल्म के मुख्य कलाकार थे।
कहानी जमींदार शोषक और मजदूर शोषित की है। ऐसे शोषण की बहुतेरी सत्य कथाएँ हमने सुन-पढ़ रखी हैं। जमींदार चाहता है कि शहर से पढ़-लिखकर उसका बेटा उसकी ही विरासत को सम्हाले। छल-प्रपंच और दमन से इकट्ठी दौलत का उपभोग करे, उसकी परम्परा को आगे बढ़ाए और जैसा वो करता आया है, वैसा ही बेटा भी करे। बेटा विवाहित है मगर गाँव में अकेले रहते हुए उसे एक मजदूर की स्त्री भाने लगती है।
स्त्री के गूँगे-बहरे पति को चोरी के अपराध में पकड़ लिया गया था। उसका सिर मुण्डवाकर, गधे पर बैठाकर गाँव भर में जुलूस निकालकर अपमानित किया जात है और गाँव के बाहर कर दिया जाता है। पति की अनुपस्थिति में जमींदार के बेटे से उसके सम्बन्धों के कारण उसे गर्भ ठहर जाता है। इधर, जमींदार के बेटे की पत्नी भी गाँव में ही आकर रहने लगती है, जिससे मजदूर की पत्नी का भी सहकार बन गया है।
एक दिन गूँगा-बहरा मजदूर लौटकर आता है तो उसकी पत्नी उसे गर्भवती होने की बात बताती है।
मजदूर ज्यादा कुछ समझे बिना, अपने लिए इस खुशखबरी को बाँटता हुआ जमींदार के घर की तरफ दौड़ लगाता है। दूर से अपनी तरफ लाठी लिए दौड़ते आते मजदूर को देखकर जमींदार का बेटा, अन्देशे में यह सोचकर डर जाता है कि कहीं मजदूर की औरत ने उसे सब बता न दिया हो। परिणामस्वरूप वह दौडक़र अन्दर से चाबुक ले आता है और बाहर आकर बिना बात सुने गूँगे-बहरे मजदूर को बेरहमी से मारना शुरू कर देता है। उस समय मजदूर की औरत अपने पति के लिए गुहार करती है और जमींदार पुत्र को खूब कोसते हुए शाप देती है। एक स्त्री के नजरिए से यह फिल्म शोषण की पराकाष्ठा में प्रतिवादी विद्रोह को मर्माहत ढंग से व्यक्त करती है। यह वही स्त्री है जो उस व्यक्ति को शाप दे रही है जिसका बच्चा उसके पेट में है।
शाबाना ने इस भूमिका में प्रभावी अभिनय किया है। अनंत नाग का चरित्र शुरू से नकारात्मक और शोषक की तरह ही स्थापित होना शुरू होता है। साधु मेहर अपनी सीमाओं मे ंप्रभावित करते हैं। अंकुर, दरअसल निर्देशकीय सूझ का सिनेमा है जिसमें कथ्य और स्थितियाँ कमाल की हैं। श्याम बेनेगल की पकड़ फिल्म में हम निरन्तर देखते हैं।
2 टिप्पणियां:
अंकुर वाक़ई मेरी भी यादगार फ़िल्मों में से एक है. उसी दौर में एक और फ़िल्म आई थी "अरविंद देसाई की अजीब दास्तान" (हो सकता है कि मैं नाम में कुछ गड़बड़ कर रहा होउं) इसमें दिलीप धवन और शबाना आज़मी थे. यह एक नितांत व्यक्तिगत यादगार फ़िल्म थी... पता नहीं कहां से इतना समय लाते थे वे लोग. वे फ़िल्में बुना करते थे. आज फ़ास्ट-फ़ूड का ज़माना है.
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के ब्लॉग हिन्दी विश्व पर राजकिशोर के ३१ डिसेंबर के 'एक सार्थक दिन' शीर्षक के एक पोस्ट से ऐसा लगता है कि प्रीति सागर की छीनाल सस्कृति के तहत दलाली का ठेका राजकिशोर ने ही ले लिया है !बहुत ही स्तरहीन , घटिया और बाजारू स्तर की पोस्ट की भाषा देखिए ..."पुरुष और स्त्रियाँ खूब सज-धज कर आए थे- मानो यहां स्वयंवर प्रतियोगिता होने वाली ..."यह किसी अंतरराष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय के औपचारिक कार्यक्रम की रिपोर्टिंग ना होकर किसी छीनाल संस्कृति के तहत चलाए जाने वाले कोठे की भाषा लगती है ! क्या राजकिशोर की माँ भी जब सज कर किसी कार्यक्रम में जाती हैं तो किसी स्वयंवर के लिए राजकिशोर का कोई नया बाप खोजने के लिए जाती हैं !
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