गुरुवार, 2 सितंबर 2010

अन्तरालों के आक्रोश और अर्थात

अजय देवगन और अक्षय खन्ना की फिल्म आक्रोश के प्रोमो इन दिनों टेलीविजन के विभिन्न चैनलों में दिखाए जा रहे हैं। दोनों ही कलाकार पुलिस अधिकारी की भूमिका में हैं और फिल्म का विषय मूल रूप से ऑनर किलिंग है। इस तरह की घटनाएँ पिछले दिनों लगातार आम हुई हैं। ऐसा मसला है जिसका ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। एक घटना के आगे दूसरी घटना इस बात को साबित कर रही है कि उत्तरदायी व्यवस्थाएँ या तो असमर्थ हैं या निरीह हैं। अपराधों के बढ़ते ग्राफ के बीच अब यह जुमला तो बेहद आम हो ही गया है कि अपराधियों को अब पुलिस या पुलिस व्यवस्था का भय नहीं रहा। हिन्दी फिल्मों में हमेशा पुलिस को क्लायमेक्स में सारे काम हो जाने के बाद पहुँचते हुए दिखाया जाता रहा है जो बाद में मजाक का विषय भी बना।

यद्यपि कुछ सबल और प्रभावशाली फिल्मकारों ने पुलिस को केन्द्र में रखकर, नायकों को आत्मबल और ताकत प्रदान कर अच्छी फिल्में भी बनायीं। खासतौर पर हम इस विषय में गोविन्द निहलानी जैसे सशक्त फिल्मकार की चर्चा करना चाहेंगे जिन्होंने अर्धसत्य, द्रोहकाल, देव आदि फिल्मों के माध्यम से सामाजिक अराजकता में कर्तव्यनिष्ठ और नैतिक प्रतिमान वाले पुलिस अधिकारियों के प्रभावी पक्ष के साथ-साथ उन पक्षों को भी छुआ जहाँ व्यवस्था और राजनैतिक हस्तक्षेप में चाहे-अनचाहे समझौतों के बीच इनको खड़ा होना पड़ता है। फिर भी जॉन मैथ्यू की फिल्म सरफरोश, विशाल भारद्वाज की फिल्म मकबूल, रामगोपाल वर्मा की फिल्म शूल, जे.पी. दत्ता की फिल्म गुलामी में पुलिस अधिकारी और यह अनुशासन अपने विविध आयामी रंगों में नजर आता है।

गोविन्द निहलानी की फिल्म आक्रोश का, प्रियदर्शन की फिल्म आक्रोश के प्रदर्शन के माहौल में याद आना स्वाभाविक है। दस साल में हम अनुमति के साथ पुराने नाम की फिल्म दोबारा बना सकते हैं। गोविन्द निहलानी की आक्रोश अत्यन्त सशक्त फिल्म थी। उस प्रभाव तक प्रियदर्शन का पहुँच पाना मुश्किल है। प्रियदर्शन बड़ी तेजी से अपनी फिल्मों की संख्या बढ़ाया करते हैं। यह बात अलग है कि बीसियों हास्य फिल्म बना चुकने के बाद उन्होंने पिछले दिनों कांचीवरम जैसी संवेदनशील फिल्म बनाकर राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल किया और अब आक्रोश बनायी है। गोविन्द निहलानी की आक्रोश ने उनको आरम्भ में ही स्थापित कर दिया था। यह फिल्म एक सीधे-सादे आदमी की कहानी है जो बेहद गरीब है और जंगल सरीखे गाँव में रहता है। रसूखवालों के जुल्म का शिकार आक्रोश का नायक लहाण्या आज भी अपनी चुप्पी की वजह से याद आता है। एक त्रासद सच का सामना करते हुए जब वह फिल्म के अन्त में अपनी बहन को मार देता है तब माहौल में बड़ा सन्नाटा व्याप्त हो जाता है। सजायाफ्ता लहाण्या के आगे अपनी बहन को आतताइयों से बचाने का यही एक रास्ता था।

प्रियदर्शन की आक्रोश पता नहीं निहलानी की आक्रोश को कहाँ तक छू पाएगी?

1 टिप्पणी:

ओशो रजनीश ने कहा…

......अच्छी प्रस्तुति ....
( क्या चमत्कार के लिए हिन्दुस्तानी होना जरुरी है ? )
http://oshotheone.blogspot.com