सिर उठाकर
उनसे अक्सर कहता हूँ
एक मुलाक़ात
तुमसे हो
कहीं अपनेपन में
धूप निहारती हो तुम्हें
जब मुंदी आँखें
घिरी हों बिखरी जुल्फों से
सोयी नहीं हो मगर
नींद के बहाने लिए
चुप मन में
एक लिखी पास हो और
एक हो जाग कर
याद की हुई
चिट्ठी पढ़ देंगे या
कह देंगे
एक बार जीवन में
हम सुनेंगे धड़कनों में
चहकते पंछियों का स्वर
आ गयी आवाज़ जो
दौड़े चले जायेंगे
पीछे-पीछे वन में....
2 टिप्पणियां:
अच्छे अहसास को संजोया है इन पंक्तियों में।
हिन्दी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है।
हिंदी और अर्थव्यवस्था, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें
आपका आभारी हूँ.
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