मंगलवार, 7 सितंबर 2010

मेहनतकशों का हिस्सा

बी. आर. चोपड़ा की फिल्म मजदूर का एक गाना है, हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, एक बाग नहीं, एक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे। दिलीप कुमार अभिनीत यह एक महत्वपूर्ण फिल्म थी जो उतनी चल नहीं पायी थी जितनी अपेक्षा की गयी थी। किस तरह एक आदमी मजदूरों को उनके हितों के लिए संगठित करने का सपना देखता है, ताजिन्दगी दो रोटी के संघर्ष और तमाम कठिनाइयों के बीच अपने देश में अपनी जिन्दगी और अपने परिवार की बेहतरी की कामना के लिए मु_ी ऊपर करके आवाज उठायी जाती है, इस फिल्म का अपना संदेश था लेकिन वह लोगों तक पहुँचा नहीं। मजदूर जीवन और परिवार पर हिन्दी सिनेमा पर अनेक सार्थक और निरर्थक फिल्में बनी हैं।

मजदूर की जिन्दगी में उसकी बेहतरी के आगे कितनी तरह के अड़ंगे आते हैं, किस तरह से अपने हक और इन्साफ की बात कहने पर, मालिक एकजुटता को तोडऩे के षडयंत्र करता है, ऐसा हमने न जाने कितनी फिल्मों में देखा है। दीवार का नायक अपने सामने एक मजदूर को मरते देखता है जब वो अपनी मजदूरी के पैसे से हफ्ता न देने का प्रण करता है। आगे चलकर वह नायक खल-प्रवृत्तियों से इस तरह टकराता है कि उसका खुद का जीवन भी सर्वशक्तिमान होने के बावजूद अशान्त और नर्क बन जाता है। मृत्यु उसकी भी नियति होती है और वह भी अपने भाई के हाथ। गोविन्द निहलानी की आघात में मिल मजदूर और मालिक के बीच का संघर्ष है। नेतागीरी की आड़ में अपराधियों का वर्चस्व और हर उठाये गये सिर को बेरहमी से कुचल देने में गुरूर में डूबी शक्तियाँ। ओम पुरी ने इस फिल्म में असाधारण अभिनय किया है।

श्याम बेनेगल की फिल्म सुसमन के बुनकरों की जिन्दगी सिमटकर रह गयी है वहीं प्रियदर्शन की फिल्म कांचीवरम का बुनकर मजदूर अपनी बेटी के विवाह के समय कांचीवरम साड़ी पहनाने का सपना संजोए व्यवस्था से लड़ रहा है। धागा मुँह में चुराकर एक दिन वह ला रहा होता है और गुण्डों द्वारा पकड़ा जाता है। उसे बेरहमी से मारा जाता है जिससे वह एक बड़े हादसे का शिकार होता है। मिल का भोंपू कितनी ही फिल्मों में हमारी व्यवस्था के बीच की बन्दरबाँट और गरीब को और गरीब तथा लाचार को और लाचार बनाने वाले वातावरण का ध्वन्यात्मक चित्रण करता है। सई परांजपे की दिशा फिल्म का ग्रामीण शहर में मजदूरी करने जाता है मगर गाँव में अपनी पत्नी को खो देता है।

झोपड़ी और चाल से शुरू होने वाली जिन्दगी पैदल और साइकिल पर मिल जाने और आने में ही खत्म होती है। मजदूर जीवन की संवेदना और यथार्थ के प्रभावी चित्रणों के परिप्रेक्ष्य में अंकुर, मिर्च मसाला, दामुल, आक्रोश, प्रतिघात जैसी फिल्मों को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

4 टिप्‍पणियां:

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

sunil ji,
abhi abhi aapke blog ka link mila. bahut achha laga, ab ek sath aapke article padh sakungi.
''hum mehnatkash is dunia se jab apna hissa maangenge...hum saari dunia maangenge'' gana to lok priye hai sath hin vidrohi aawaz bhi hai jo ek josh paida karti hai, jaise ki commredon ki hunkar aur bigul ho. shayad kisi din ye gana saarthak ho aur ye desh aam janta kee ho jaaye.
bahut achha laga aapka lekh, shubhkaamnaayen.

geetashree ने कहा…

कांजीवरम के मजदूर का यथार्थ विकासशील देशो के तमाम मजदूरो का यथार्थ है जो विद्रुप तो हैं,नुकीला भी है। फिल्म को देखते हुए कुछ भीतर में चुभता है,टीसता है..जीवनभर दूसरो के लिए रेशम बुनने वाला, अपनी बेटी को रेशम की साड़ी नहीं पहना पाता..कितनी बड़ी विडंबना है..वो भी उस दौर में जब वाम आंदोलन उभार पर था..उसकी बेचारगी एक महाआख्यान है विवशता का. सुनील जी, बहुत अच्छा टापिक चुना है.और विस्तार से लिखे,कभी.

सुनील मिश्र ने कहा…

जेन्नी जी, बहुत अच्छा लगा, आप रचनात्मक दुनिया के हमारे आँगन में इतनी आत्मीयता से आयीं. आपकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही अपनी और विषय-सम्बद्ध है. आभार मानता हूँ. और भी आते रहिएगा.

सुनील मिश्र ने कहा…

गीताश्री जी, विषय को सराहने के लिए आपका आभारी हूँ. "कांचीवरम" मेरी प्रिय फिल्म है. दो-तीन बार इस पर विस्तार से लिखा है.