मृणालिनी, एक आश्वस्त और आत्मविश्वासी निर्देशक हैं। हम अच्छी फिल्मों के सिनेमाघर न पहुँच पाने के तंत्र को लेकर चर्चा करते हैं। कई बार हम यह बात भी करते हैं कि ऐसी ही तमाम वजहों से किस तरह स्तरीय और प्रेरक सिनेमा जनता से दूर है। जनता की अपनी उपेक्षा और बेपरवाही की प्रवृत्ति भी भले ही इसका कारण हो मगर इसकी वजह से ही लीक से हटकर अपनी लकीर खींचने वालों का उत्साह बेहद प्रभावित होता है। मृणालिनी ने धुँआ नाम से एक महत्वपूर्ण फिल्म का निर्देशन किया था। जब उन्होंने यह फिल्म पूरी की थी तभी लगभग उसी वक्त उनको गोवा में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में इसे दिखाने का मौका मिला था। स्वयं उन्हीं ने उसके बाद मुम्बई में एक मुलाकात में बताया था कि उनकी फिल्म को अपार सराहना और शुभकामनाएँ मिलीं।
उनकी बातचीत से बलवती जिज्ञासा आज तक ज्यों की त्यों इसलिए है क्योंकि उनकी फिल्म को प्रदर्शन के अनुकूल अवसर अभी तक नहीं मिले हैं जबकि उन्होंने पर्यावरण और मानव जीवन के जोखिम से जुड़ा एक सशक्त विषय इस फिल्म में उठाया है। यह फिल्म महात्वाकांक्षी और अपने भविष्य तथा उन्नति की चिन्ता करने वाले एक ऐसे युवा की कहानी है जो एक बड़ी फैक्ट्री में काम करता है। यह फैक्ट्री उत्पादन के साथ ही विषाक्त और जानलेवा धुँए का उत्सर्जन करती है। उसकी पत्नी उसको आसपास की बस्ती और पेट में पल रहे अपने बच्चे का वास्ता देकर समझाती है मगर वह स्थितियों की गम्भीरता को नहीं समझ पाता।
परिणाम यह होता है कि यह स्त्री, आसपास की बस्ती की सजग और बहादुर स्त्रियों के साथ एक बड़ा आन्दोलन खड़ा करती है जिसके परिणामस्वरूप फैक्ट्री को बन्द करना पड़ता है। यह फिल्म बड़ा गहरा सन्देश छोड़ती है। समूह की शक्ति और स्त्री के आत्मबल का क्रान्तिकारी उदाहरण बनी यह फिल्म संजीदा दर्शकों के लिए परदे पर एक अहम अनुभव साबित होगी। हो सकता है मृणालिनी आर. पाटिल अपनी संचित ऊर्जा से एक बार फिर इसे दर्शकों तक लाने के लिए जद्दोजहद शुरू करें।
हिन्दी सिनेमा में ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं। दो दशक पहले भोपाल में बासु भट्टाचार्य ने एक लघु फिल्म एक साँस जिन्दगी बनायी थी। उस पर उन्होंने और दिनेश ठाकुर ने स्क्रिप्ट के स्तर पर महती काम किया था। भोपाल की गैस त्रासदी बीसवीं सदी के अन्तिम तीन दशकों की सबसे ज्यादा और बड़ी त्रासद घटना है। मिलों के जहरीले रसायन और जानलेवा धुँए की त्रासदियाँ महानगरों और अंचलों में मानव जिन्दगियाँ और निरीह प्राणी भुगतते हैं।
विचार और समझ के बीच ऐसी मन:स्थितियों में मृणालिनी आर. पाटिल की फिल्म धुँआ का व्यावसायिक प्रदूषण का शिकार बन जाना एक तकलीफदेह घटना है।
2 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी समीक्षात्मक चर्चा। आभार।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
देसिल बयना – 3"जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!", राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें
आपकी प्रशंसा के लिए आभारी हूँ राजभाषा हिन्दी जी.
एक टिप्पणी भेजें