रविवार, 12 सितंबर 2010

अन्दाज़ : मैं राग हूँ, तू वीणा है....

1949 में प्रदर्शित फिल्म अन्दाज, भारतीय सिनेमा के एक बड़े, संजीदा और प्रतिबद्ध निर्देशक मेहबूब खान की आखिरी श्वेत श्याम फिल्म है। इस फिल्म के बाद आन, अमर, मदर इण्डिया और सन ऑफ इण्डिया उन्होंने रंगीन बनायीं थीं। आखिरी श्वेत-श्याम फिल्म को रेखांकित किए जाने के पीछे वजह यह है कि कुछ विलक्षण फिल्मकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्मों में गजब के प्रभाव और जज्बात रचे हैं। जाहिर है कि निर्देशक का सिनेमेटोग्राफर अलग होता है मगर जितना दृष्टिसम्पन्न सिनेमेटोग्राफर होता है, उससे कहीं ज्यादा कल्पनाशील और दृष्टिसम्पन्न भारतीय सिनेमा के स्वर्णयुग के निर्देशक हुआ करते थे। मेहबूब खान निश्चित ही उनमें से एक थे। हमारे सोचने के लिए यह कम दिलचस्प नहीं है कि देश को आजाद हुए अभी दो साल हुए हैं, हिन्दुस्तान नवनिर्माण के सपने, कल्पना और प्रक्रिया से गुजरना शुरू हुआ है, और एक फिल्मकार ठीक ऐसे समय एक रोमांटिक फिल्म अन्दाज बना रहा है और वह भी प्रेम त्रिकोण को लेकर।

यह ऐसी युवती नीता की कहानी है जो सम्पन्न परिवार की है और आधुनिक जीवनशैली, पश्चिमी हावभाव और बर्ताव से प्रेरित है। उसकी बातचीत, मुखरता और मिलने-जुलने का अतिरेकपूर्ण बर्ताव उसे सभी के आकर्षण का केन्द्र बनाता है। वह अपनी जिन्दगी में उन्नति के सपनों को अपने मित्र दिलीप के सहयोग और समझ से पूरा करने की चाह रखती है। दिलीप कहीं न कहीं उसकी मुखरभाव में अपने लिए प्रेम और उसकी उम्मीदों को देखता है लेकिन नीता को उससे प्रेम नहीं है। एक दिन नीता के जीवन में राजन आता है, जिसकी जीवनशैली भी आधुनिक है और आजाद ख्याल युवक होने के साथ ही वह रोमांटिक भी है। नीता उससे शादी कर लेती है जिसका अत्यन्त बुरा मानसिक प्रभाव दिलीप पर पड़ता है। फिल्म एक त्रासद अन्त पर जाकर खत्म होती है।

इस फिल्म का नाम अन्दाज़ निर्देशक ने इसलिए रखा कि यह खासतौर पर मनुष्य के बर्ताव करने के तरीकों और उसके प्रभावों को, विशेषकर स्त्रियों को केन्द्र में रखकर सोची गयी। नीता की भूमिका में नरगिस निश्चित रूप से आधुनिक और आजाद जिन्दगी का ऐसा पर्याय बनकर सामने आयीं जो अपने मित्र के एकतरफा प्रेम से बिल्कुल बेखबर है। राजकपूर ने अपनी भूमिका, जैसा किरदार उनका था, बखूबी निभायी मगर दिलीप कुमार ने हताश मानसिक त्रासदी को बड़े प्रभावी ढंग से व्यक्त किया। मजरूह के गीत, तू कहे अगर जीवनभर, झूम झूम के नाचो आज, हम आज कहीं दिल खो बैठे, भीतर तब असर करते हैं। नौशाद के मधुर संगीत की वजह से हमें ये गाने आज भी गुनगुनाने का मन होता है। इकसठ साल पहले की यह फिल्म तब सुपरहिट हुई थी।

4 टिप्‍पणियां:

Geetashree ने कहा…

सुनील जी, आपका ब्लाग बेहद महत्वपूर्ण है। सिनेमा की नई समझ पैदा करता है। अंदाज फिल्म पर जिस अंदाज से आपने लिखा है वो बेहद उम्दा है.ये इतिहास को नए सिरे से समझने जैसा है और यूं कहे कि उसे समझने की नई सोच विकसित करता है तो ज्यादा सटीक होगा.जारी रखें..
आपकी कविताएं बीच बीच में वैसे चली आती हैं जैसे कोई चुपके से आपके मन में चला आता है..कोना तलाशता हुआ.

राजभाषा हिंदी ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।

राष्ट्रीय व्यवहार में हिंदी को काम में लाना देश कि शीघ्र उन्नत्ति के लिए आवश्यक है।

एक वचन लेना ही होगा!, राजभाषा हिन्दी पर संगीता स्वारूप की प्रस्तुति, पधारें

सुनील मिश्र ने कहा…

गीताश्री जी, सराहना के लिए आभारी हूँ. सिनेमा पर ये टिप्पणियां रोज़ "पत्रिका" अख़बार समूह में "टेक-रीटेक" स्तम्भ में प्रकाशित होती हैं. इस २४ सितम्बर को यह स्तम्भ लिखते हुए एक साल हो जायेगा.

सुनील मिश्र ने कहा…

आभारी हूँ राजभाषा हिंदी जी.