इक वज़ह ही तो है बस
कि मिटाया करते हैं
बार-बार
अपना ही लिखा
तुम तो हमेशा ही
उस तरफ का रुख किये रहे
हम ही न रोक पाए
खुद को और
तय करते रहे दूरी
बड़े चुपचाप
हम बाँध आये थे
धागा उम्मीदों का
तुमको न दिखा
वो छोर बंधा रह गया तुमसे
इस छोर को
हम छुए सोचते रहे
कभी मिल जायेगी
उम्मीदों को मंजूरी
देर शाम नींद चली गयी
आँखों को जगाकर
ज़िंदगी और दर्द के
कुछ फलसफे सिखा.......
1 टिप्पणी:
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज़्ज़त करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज़्ज़त न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे
भारतेंदु और द्विवेदी ने हिन्दी की जड़ें पताल तक पहुँचा दी हैं। उन्हें उखाड़ने का दुस्साहस निश्चय ही भूकंप समान होगा। - शिवपूजन सहाय
हिंदी और अर्थव्यवस्था-2, राजभाषा हिन्दी पर अरुण राय की प्रस्तुति, पधारें
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