सोमवार, 13 सितंबर 2010

फलसफे

इक वज़ह ही तो है बस
कि मिटाया करते हैं
बार-बार
अपना ही लिखा

तुम तो हमेशा ही
उस तरफ का रुख किये रहे
हम ही न रोक पाए
खुद को और
तय करते रहे दूरी

बड़े चुपचाप
हम बाँध आये थे
धागा उम्मीदों का
तुमको न दिखा

वो छोर बंधा रह गया तुमसे
इस छोर को
हम छुए सोचते रहे
कभी मिल जायेगी
उम्मीदों को मंजूरी

देर शाम नींद चली गयी
आँखों को जगाकर
ज़िंदगी और दर्द के
कुछ फलसफे सिखा.......