सामने मुँह फेरे हुए हैं अपने देखो
गैरों से कहाँ किये जाते हैं गिले
सवाल नज़रों का है दूर-पास की
पहचान न पाए हम जब-जब मिले
दरख़्त साँस भी नहीं लेते अब तो
शाख जन्मों से स्थिर पल भर न हिले
उनके एहसास हो चले बे-परवाही के
खुश्क हवा तंग नमी फूल कैसे खिलें
वक़्त अपनी नजाकत पर परेशान सा
जख्म उनके दिए कहाँ जा कर सिलें
2 टिप्पणियां:
सार्थक लेखन के लिए शुभकामनाये.......
“20 वर्षों बाद मिला मासूम केवल डॉन से"
आपकी पोस्ट ब्लॉग4वार्ता पर
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
मशीन अनुवाद का विस्तार!, “राजभाषा हिन्दी” पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें
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