शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

परायी जुल्फों का मोह

एक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक से बात हो रही थी। उन्होंने श्रीदेवी के घर आयोजित हुई एक पारिवारिक दावत का जिक्र किया, जिसमें उनके पति बोनी कपूर, अनिल कपूर, कुछ खास सिनेमा और सिनेमा से इतर मित्रों की उपस्थिति के बीच खाने-पीने का आत्मीय माहौल था। उस दावत में शामिल होने खास चेन्नई से रजनीकान्त आये थे। दावत में आते ही उन्होंने अच्छे मित्र और लगभग मेजबान की तरह श्रीदेवी के काम में हाथ बँटाया और सभी के साथ खूब बातचीत-हँसी-मजाक में हिस्सा लिया। इस प्रसंग में उल्लेखनीय बात यह थी कि रजनीकान्त एकदम अपने सहज स्वरूप में आये थे अर्थात बिना विग के।

अब हममे से बहुत से लोग भली प्रकार जानने लगे हैं कि रजनीकान्त के सिर पर बरसों से बाल नहीं हैं मगर इसको लेकर यह महान सितारा जरा भी कांशस नहीं है। रजनीकान्त आज भी सार्वजनिक जगहों, समारोह, फिल्मी आयोजनों में बिना विग के ही जाते हैं। वे अपने आपको इस तरह बड़ा सहज महसूस करते हैं। न सिर्फ दक्षिण बल्कि हिन्दुस्तान और देश के बाहर भी उनकी लोकप्रियता असाधारण है। उनका मानदेय कल्पनातीत है, फिल्मों की सफलता का आर्थिक आँकड़ा आप अन्दाज नहीं लगा सकते लेकिन इसके बाद भी वे अपने दर्शकों के सितारे हैं। सबके लिए सहज और आत्मीय। उनकी समाज सेवा और प्रतिबद्धता ही उनको दक्षिण में पुजवाती है मगर वे हमेशा सहज बने रहते हैं। उनकी पिछली हिट फिल्म सिवाजी द बॉस ने भारी धन अर्जित किया था। सिवाजी के ही निर्देशक शंकर ने उनको लेकर रोबोट या एदिरन बनायी है जो अगले सप्ताह रिलीज हो रही है।

हिन्दी सिनेमा में सितारे सिर से गिरते, घटते और साफ होते बालों की बड़ी चिन्ता करते हैं। पुराने समय में राजकुमार के बारे में तो कहा ही जाता था कि वे विग इस्तेमाल करते हैं। राकेश रोशन भी मध्यम सफलता के नायक थे और हमेशा विग में ही नजर आते थे। बाद में जब वे निर्देशक बने तक जरूर उन्होंने बिना विग के दिखायी देना शुरू किया। अमरीश पुरी की सफलता उनके गेटअप में निहित रहा करती थी। जाहिर है वे प्रतिभासम्पन्न भी थे मगर उन्होंंने अपने बाल पूरी तरह घुटवा रखे थे। डैनी ने भी लम्बे समय बाल घुटवाकर रखे। पिछले दस सालों में बहुत सारे सितारों ने विग लगाना शुरू की है जिनमें महानायक अमिताभ बच्चन, जैकी श्रॉफ, जावेद जाफरी आदि शामिल हैं। ये सभी सितारे अपनी सितारा छवि में ही बाहर भी दिखायी देते हैं। सामाजिक जीवन की सहजता और मिलनसारिता में खुले दिल से शामिल होने से खुद को मनुष्य हल्का महसूस करता है। हिन्दी सिनेमा के सितारों में यह बोध अपेक्षाकृत कम नजर आता है।

7 टिप्‍पणियां:

ओशो रजनीश ने कहा…

गणेशचतुर्थी और ईद की मंगलमय कामनाये !

अच्छी पंक्तिया लिखी है आपने ...

इस पर अपनी राय दे :-
(काबा - मुस्लिम तीर्थ या एक रहस्य ...)
http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_11.html

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…


बढिया पोस्ट
बेहतरीन लेखन के लिए शुभकामनाएं

संडे का फ़ंडा-गोल गोल अंडा

ब्लॉग4वार्ता पर पधारें-स्वागत है।

राजभाषा हिंदी ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।

हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।

देसिल बयना – 3"जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!", राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें

सुनील मिश्र ने कहा…

धन्यवाद ओशो जी.

सुनील मिश्र ने कहा…

आपका आभारी हूँ ललित भाई.

सुनील मिश्र ने कहा…

आभार राजभाषा हिंदी जी.

Rajeysha ने कहा…

असलि‍यत के साथ रहने के सामर्थ्‍य हर कि‍सी की तो नहीं होती ना....